आध्यात्म
माया का संसार सकल जग कॉच है, जीवन है दो घड़ी और मरना सॉच है।
शुक्रवार, जुलाई 18, 2025
अपराध बोध
शनिवार, सितंबर 28, 2024
अमीर
बुद्धिमान
शुक्रवार, अगस्त 23, 2024
लौकिक जीवन
गुरुवार, अगस्त 22, 2024
इच्छाओं में छिपा है दुःखों का कारण
मंगलवार, नवंबर 01, 2022
संसार
शनिवार, अक्टूबर 29, 2022
सम्पत्ति
शुक्रवार, जुलाई 30, 2021
सभ्यता
शुक्रवार, अप्रैल 02, 2021
भगवत कृपा
गुरुवार, मार्च 25, 2021
यथामाम् प्रपद्यन्ते
ये यथामाम् प्रपद्यन्ते, तेस्तथैव भजाम्यहम् ।
मैं आलसी को रोग, चिन्तन करने वाले को ज्ञान, ईर्ष्या की दृष्टि से देखने वाले को शत्रु और पुरुषार्थी को पदार्थ के रूप में प्राप्त होता हूँ।
रविवार, जनवरी 10, 2021
कुचक्र में मानव
शुक्रवार, जनवरी 08, 2021
जीवन सूत्र
शुक्रवार, सितंबर 18, 2020
जीवन
सोमवार, सितंबर 14, 2020
सर्वश्रेष्ठ निर्माता-निर्देशक ईश्वर
सोमवार, जुलाई 27, 2020
क्रोध
सोमवार, मार्च 16, 2020
कर्म
हम रोजाना कर्म करते हैं। अध्यात्म के अनुसार,कर्म अच्छा हो या बुरा,सभी बन्धन के कारण हैं। सब सोचते हैं कि जिन्दगी मिली है कुछ कर के दिखाऊं। किसको दिखाना है? जन्म देने वाले माता पिता क्या यह जानते थे कि हम किसको जन्म देने जा रहे हैं ? बहुत से लोग जिनसे पूर्व में हमारे सम्बंध थे ,हम एक साथ पढ़े ,खेले कार्य किये, इस पृथ्वी पर ही हैं ,लेकिन हमारे लिए इस जन्म में दुर्लभ हैं। हमनें दिखाने के लिए घर बढ़ाए ,गाड़ियां बढ़ायी, जमीन बढ़ाए इत्यादि।फरेब की दुनियां बढ़ायी। हमनें ऐसे कोई कर्म नहीं किये जो इसमाया के संसार को रचने वाले मायाधीश को देखने-सुनने योग्य हो। जनार्दन।
सोमवार, फ़रवरी 24, 2020
निश्चिन्तता
यदि हम लगातार परिचित माहौल में रहते हैं,तो इससे निश्चिन्तता तो होगी,पर विकास की कोई गुंजाइश नहीं होगी।यह सर्कस पर कलावाजी वाले झूले की तरह है। जब तक झूले के साथ झूलते हैं तबतक तो सब ठीक होता है।लेकिन जब रस्सी छोड़ कर दूसरी रस्सी पकड़ने की कोशिश करते हैं तो दोनो रस्सियों के बीच की स्थिति बड़ी भयावह होती है।क्योकि उस समय हम न इधर के होते हैं न उधर के।
जो लोग भी जीवन के दूसरे आयामों के बारे में पता लगाना और अनुभव करना चाहते हैं उन सबकी यही दसा होती है।वे जीवन के दूसरे पहलू को जानना तो चाहते हैं,लेकिन अपने परिचित आयाम को एक पल भी छोड़ना नहीं चाहते।
सोमवार, दिसंबर 30, 2019
शरीर
शरीर मांस एवं रुधिर का पिण्ड है इसमें कुछ हड्डियां हैं।इसके ऊपर चमड़े का कवर है।इसमें बात,कफ,पित्त सदा बनता बिगड़तआ रहता है।इसके नौ द्वारों से गन्दगी ही निकलती है।
संसार में ममता रखना दुख का कारण है ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि संसार से आसक्ति मिटे।
जनार्दन त्रिपाठी।
रविवार, जुलाई 28, 2019
अन्दर की आवाज
सोमवार, दिसंबर 03, 2018
दर्पहारी
परमपिता परमेश्वर किसी के द्वारा शक्ति या प्रभुत्व का अपव्यवहार सहन नहीं करते। वे किसी का भी दर्प वर्दास्त नहीं करते। इसलिए व्यवहार जगत में हम देखते हैं कि,जो व्यक्ति क्षमता का अपव्यवहार करता है वह एक दिन ऐसा गिर जाता है कि उसकी अस्थि, चर्म सब कुछ पहचान के अयोग्य हो जाता है।
सत्ता के बिना कोई अस्तित्व सिद्ध नहीं होता है। कार्य हो रहा है और एक सत्ता उसे देख रही है। वस्तु साक्षी सत्ता है। किन्तु द्रस्टा सिद्ध सत्ता है।
जनार्दन त्रिपाठी।
मंगलवार, नवंबर 13, 2018
सामान्य एवं दार्शनिक बुद्धि मनुष्य
मनुष्य पृथ्वी पर अधिकतम 125 वर्षों के लिए आता है, इस अल्प समय में वह अव्यक्त सत्ता को नहीं समझ सकता।अतः मृत्यु अतिसंनिकट समझ कर कार्य करना उचित है। पशु पक्षी, पेड़ पौधे एवं अन्य जीव जंतु अपने सहज वृत्ति से प्रेरित होकर कर्म करते हैं।
जनार्दन त्रिपाठी
सोमवार, जुलाई 09, 2018
God & Nature
एक से अनेक होने की इच्छा से परमपिता परमेश्वर ने सृष्टि की रचना की। समय और प्रकृति सब जीवो को भ्रमित कर रखते हैं। प्रकृति से उत्पत्ति, पालन पोषण तथा संहार करवाकर समय (काल) अपना आहार तैयार करवाता है। परमेश्वर आग तत्व से भी जटिल हैं। अग्नि तत्व को किसी रूप विशेष में ही रख़ कर ले जाया जा सकता है।
परमेश्वर को समझना अग्नि को समझने जैसा ही है।
जनार्दन त्रिपाठी
गुरुवार, जनवरी 11, 2018
बाहरी संसार की खुशी
शनिवार, नवंबर 04, 2017
सोमवार, सितंबर 11, 2017
आत्मविश्वास
संसार का इतिहास बस ऐसे थोड़े से लोगों का इतिहास है, जिन्हें अपने आप में विश्वास था। यदि हम ईश्वर में विश्वास करते हैं और अपने आप में नहीं तो समझें कि नास्तिक हैं। जब कोई अपने आप में विश्वास खोता है तभी से उसके कष्ट शुरू हो जाते हैं। समस्त धर्मों के उद्देश्य दुखों से मुक्ति है। जीवन अल्प है, संसार के आडम्बर क्षणभंगुर हैं। धर्मों के मसीहा भी हमारे समान ही मनुष्य थे, एक मनुष्य का उस स्थिति में पहूचना ही इस बात का प्रमाण है ,कि उसकी प्राप्ति प्रत्येक मनुष्य के लिए संभव है बस अपने आप में विश्वास होना चाहिए।
जनार्दन त्रिपाठी 9005030949
शनिवार, अगस्त 19, 2017
माया में पैर फंसाने के लिए नहीं सोचना चाहिए।
पृथ्वी पर प्रभु ने जो काम सौंप कर भेजा है, सब नहीं चाहते हुए भी वही कर रहे हैं । कोई कबाड़ उठा रहा है, कोई नाली , सड़क इत्यादि निर्माण कर रहा है, कोई धर्म कर्म, पूजा पाठ, कोई कुछ, कोई कुछ कोई कुछ भी नहीं ।
जनार्दन त्रिपाठी मो नं 9005030949
बुधवार, अगस्त 09, 2017
यज्ञ
जोदेंगे वही वायु एवं जल के रूप में वापस मिलेगा। वायु सोधन के उद्देश्य से अपने प्रिय खाद्य पदार्थों एवं मुल्यवान सुगंधित पौष्टिक द्रव्यों को अग्नि में आहुति देना यज्ञ है। यज्ञाग्नि जब तक जीवित रहती है उष्णता एवं प्रकाश की अपनी विशेषता नही छोड़ती , उसी प्रकार हमे भी गतिशील धर्मपरायण , पुरुषार्थी एवं कर्तव्य निष्ठ बने रहना चाहिए। यज्ञाग्नि का अवशेष भस्म मस्तक पर लगाते हुए विचार करना चाहिए कि मानव जीवन का अन्त भस्म के रुप मे शेष रह जाएगा।
२-देव यज्ञ- दुष्प्रवृत्तियों का त्याग, देवप्रवृत्तियों का पोषण।
३- पितृ यज्ञ - काया की समाप्ति के बाद भी जीवन यात्रा रुकती नहीं है। माता पिता के प्रति श्रद्धा।
४- भूत यज्ञ - गाय, कुत्ता,कौआ, चींटी, एवं देवत्व शक्तियों के निमित्त।
५- मनुष्य यज्ञ- अतिथि सत्कार एवं दान।
शुक्रवार, जनवरी 15, 2016
प्रकृति
प्रकृति का यह विश्वरूप परिमाण अत्यन्त
अद्भुत है कोई भी इसकी यथार्थ गणना
नही कर सकता और अपने चर्मचक्षुओं
से ग्रहनक्षत्रों के गमनागमन को नहीं देख
सकता | प्रत्येक मनुष्य प्रतिक्षण कर्म
करता है और कर्म करते करते स्वर्ग के
सुख तक पहूंच कर पुनः वापस आ जाता
है |
सुख
तृप्ति, सन्तुष्टि और आनन्द स्वयं से प्राप्त होते
हैं और भौतिक सुख समाज से प्राप्त होते हैं
एक भौतिक सुख हेतु तीन सुखों की तिलांजली
ठीक नहीं है | तीनों सुखों के प्राप्त होते ही
भौतिक सुख अनायास प्राप्त हो जाता है |
अमरत्व
पृथ्वी पर कुछ भी स्थाई नही़ है| यह जड़ चेतन
संसार एक दूसरे के सहयोग से संचालित है |
सेवा एवं सहानुभूति की भावना से कर्म करता
हुआ जो मनुष्य मानवता के विकास हेतु सोचता
एवं कर्म करता है वह अपने नाम, रूप एवं कीर्ति
को पृथ्वी पर अमर कर देता है |
मंगलवार, अक्टूबर 13, 2015
जीवनी शक्ति (प्राण क्रिया)
शरीर यन्त्रवत है . इसके संचालन हेतु वायु
जल और भोजन की आवश्यकता होती है |
शरीर असंख्य कोशों से बना है |
हम जो भी क्रिया कलाप करते हैं .
उससे कोष नष्ट होते रहते हैं जिसके कारण
अंगप्रत्यंग में थकान आता है | यदि नये कोष
का निर्माण न हो और नष्ट हुए कोष उत्सर्जित
न हों तो हम शिघ्र मृत्यु के ग्रास हो जाएंगे |
दिनभर में जितना हम ठोस आहार लेते है
उससे तीनगुना जल और जल से तीनगुना
आक्सीजन लेते हैं | आक्सीजन कोशों के
निर्माण में मुख्य भूमिका निभाता है |
सामान्यत: हम जो वायु ग्रहण करते हैं उसमें
79%नाईट्रोजन 20.96% आक्सीजन और.4%
कार्बनडाईआक्साइड होती है | स्वास द्वारा
आया हुआ नाईट्रोजन नि:स्वास द्वारा तुरन्त
बाहर निकल जाता है | साधारण स्थिति में लिए
गये स्वास से आक्सीजन का कुल 4.5% भाग
ही शरीर ले पाता है | लम्बी और गहरी स्वास
से 13.5% तक आक्सीजन शरीर ग्रहण कर
लेता है जिससे नये कोष का निर्माण और नष्ट
हुए कोष का उत्सर्जन जल्दी जल्दी होता है |
पृथ्वी पर देखा गया है कि न्यूगिनी के लोग
हृष्टपुष्ट और दिर्घायु होते हैं | उनका आहार
बहुत ही सामान्य कोटि का है फिर भी वे
उत्साह और कार्य कुशल हैं | यह इसलिए
कि लम्बी सॉस का एक व्यायाम वे
नियमित करते हैं |
आप निश्चित मानें कि जन्म से पूर्व निर्धारित
है कि आप इस जीवन में कितनी सॉसें लेंगे |
स्वॉस से स्वॉस के वीच समय बढाकर आप
दिर्घायु हो सकते हैं |
सोमवार, अक्टूबर 12, 2015
सिद्धि
मन की अपार सामर्थ्य को एक निश्चित मार्ग
में लगा देने से शक्ति के द्वार खुल जाते हैं |
यही सिद्धि है | ध्यान पूर्वक विचार करने से
ही हम किसी वस्तु के मूल स्वरूप और उसकी
वास्तविकता को जान सकते हैं | ध्यानयोग
का साधक सिद्धि के मार्ग की ओर पग बढ़ाता
है . उसे हरक्षेत्र मे सफलता ही दिखाई देती है |
इस विधि से व्यक्ति शक्ति का विकास
करता है | आर्थिकरूप से प्रगति करता है | और
अपनी भौतिक इक्छाओं को मूर्त रूप देता है |
ध्यान के विना ध्येय की सिद्धि संभव नही है |
जनार्दन त्रिपाठी
0 9005030949
शुक्रवार, अक्टूबर 09, 2015
सूक्ष्म
ब्रह्मांड में हर वस्तु गतिशील है | जिस पृथ्वी
पर हम हैं उसकी अनेकों ज्ञात व अज्ञात गतियॉ
हैं | पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है . मंडराती
है तथा सूर्य के साथ कृतिका मंडल की परिक्रमा
करती है | अपनी धुरी पर पृथ्वी 24घंटे24सेके.
में घूम जाती है. सूर्य की परिक्रमा 366 दिन में
करती है और इसके मंडराने की गति प्रत्येक
26026वर्ष में पूर्ण होती है |
पृथ्वी पर उत्पन्न सभी प्राणी तथा पदार्थों में
गति है | मिट्टी और पत्थर में भी अव्यक्त गति
होती है | पदार्थों को मैंने सृजन क्रिया में व्यस्त
देखा है | विद्युत पुंज में गतिशीलता और इक्छा
शक्ति की विद्यमानता मैंने अनुभव किया है |
मैनें देखा है कि . ब्रह्मॉड का हर परमाणु तीब्र
गति से अपना कार्य कर रहा है | सारा ब्रह्मॉड
गतिमय होने के कारण ही शक्तिमय है |
अपने शरीर में भी हृदय की गति बराबर चलते
रहना जीवन कहलाती है और हृदय की गति
रूकना ही मृत्यु | शरीर एक रासायनिक कारखा
ना है उसके सभी अंग गतिशील रहते है | शरीर
को गतिशील रखने से वह स्वस्थ एवं शक्तिसंपन्न
रहता है |
सूक्ष्म शक्तियों के विकास का
आधार भी यही है हमने अनुभव किया है |
तप. यौगिक क्रियाएं. चिंतन आदि के द्वारा
सूक्ष्म शरीर के शक्ति केन्द्रो को गतिशील
किया जाता है | और सूक्षमशक्ति .स्थूलशक्ति
से ज्याता प्रभावशाली हो जाती है | जैसे पानी
से ज्यादा ताकतवर उसका वाष्प हो जाता है |
तप
कष्ट सहना . परिश्रम एवं प्रयत्न करना तप है |
जिसतरह आजकल समाज में धनवान बनने
की होड़ है . उसी तरह प्राचीनकाल मे तपस्वी
बनने की होड़ थी | हर व्यक्ति तप की पूजी
एकत्र करने में लगा रहता था | सम्मान का माप
दण्ड तप ही था | तप कई प्रकार के थे-
कुस्ती . ब्यायाम . आसन और दौड़कर शरीर
स्वस्थ रखना . गहन अध्ययन से विद्वान बनना
लिखने व बोलने का अभ्यासकर लेखक व
वक्ता बनना तप है | अनुकूल विचारवालों का
संगठन बनाकर उसका नेता बनना तप है |
जीवन में जैसा बनने की इक्छा हो . समय
गंवाये विना वैसे ही तप का चुनाव कर लेना
चाहिए | अन्यथा प्रकृतिप्रदत्त शक्तियॉ
सुस्त पड़ी रहते हुए निष्कृय हो जाती हैं |
जहॉ तप है वहीं शक्ति. सुख शान्ति . आनन्द
धन. कीर्ति. और सबकुछ है | जो इस विवेक
पूर्ण निर्णय की उपेक्षा करता है . वह आज
नहीं तो कल दीनहीन. दुखी और विपत्तिग्रस्त
बनकर रहेगा |
गुरुवार, अगस्त 27, 2015
जीव एवं इंद्रिय
जीव हमेंशा प्रेम एवं आनन्द में रहना चाहता
है और उसकी इन्द्रियॉ भोगों में आनन्द अनुभव
कराती हैं | इंन्द्रियों का सम्वन्ध बाहरी संसार
से होता है अत: जब तक जीव इंन्द्रियों के
भोग पर आश्रित रहता है तबतक वह सुखदुख
के जंजाल में पड़ा रहता है | इन्द्रियो
में शक्ति कम होती है |
प्रवृति जीव करता है इंन्द्रियॉ प्रवृति का
पालन कराने में जुट जाती हैं चूंकि इंन्द्रियों
में शक्ति कम होती है इसलिए इंद्रिय शक्ति
समाप्त होते ही निवृति भी
स्वत: हो जाती है | और सुखदुख का उतार
चढ़ाव निरंतर चलता रहता है | जानकार लोग
अपने जीवन को ऐसे व्यवस्थित करते हैं कि
वे अपने आप तृप्त एवं संतुष्ट रहते हैं |
हम अभ्यास से अपने को शान्त कर सुख
और संतुष्ट जीवन बिता सकते हैं |
हम पृथ्वी पर कई हजार वर्ष तक जीवित
रहने नही आए हैं | समाज एवं सरकारों ने
कुछ नियम बना दिए हैं वे नियम भौतिक
क्रियाओं की पूर्ति हेतु हैं एवं माया के संसार
की रचना किए हुए हैं |
बुधवार, मार्च 11, 2015
दान
किसी वस्तु पर से अपना अधिकार समाप्त कर
दूसरे का अधिकार स्थापित करना दान है | जो
दान उपयुक्त समय में विना किसी स्वार्थ के
जरूरतमंद को दिया जाय वह सात्विक दान है |
अपने पर उपकार के वदले या किसी फल की
उम्मीद से दिया गया दान राजस दान है | और
बिना सत्कार या अपमानित करके दिया गया
दान तामस दान है |
संकल्प पूर्वक दिया गया दान कायिक
अपने से भयभीत को निकट आने पर दिया
गया दान अभय दान और जप तथा ध्यान
प्रवृति के अर्पण को मानसिक दान कहते हैं |
किसी के आग्रहपर उसे दिया जाने वाला
दान यदि वह जरूरतमंद है तो दान अन्यथा
लोभपूर्ति है |
दान किसी भी रूप में दिया जाय वह देने
वाले के दुनियॉ का विस्तार करता है |
सोमवार, मार्च 02, 2015
योग
पॉच हजार वर्ष पूर्व श्रीकृष्ण ने अर्जुन को योगा-
भ्यास करने की अभिशंसा की थी | किन्तु अर्जुन
जैसे पराक्रमी ने योगपद्धति के कठोर विधि _
विधान का अनुसरण करने में स्पष्ट रूप सेअपनी
अयोग्यता प्रकट की थी | वास्तविक योगाभ्यास
इंद्रियो पर नियंत्रण है | और जब यह नियंत्रण
स्थाई हो जाय़ तो ईश्वर में मन को केन्द्रित करना
है | मन की एकाग्रता का अभ्यास करने हेतु
एकान्तवास लेना पड़ता है |
अत्यंत दुखद है कि अनेकानेक स्वयं घोषित
योगी „योगाभ्यास के प्रति लोगों के प्रवृति का
शोषण करते हुए अपना व्यापार चलाते हैं |
मनुष्य को कार्य व्यापार के क्षेत्र मे व्यावहारिक
होना चाहिए लेकिन योग के नाम पर व्यायाम
कलाओं के अभ्यास में लोगों का मूल्यवान समय
नष्ट नही करना चाहिए |
इस युग मे लोग सामान्यत: अल्पायु तथा आध्या-
त्मिक जीवन को समझने में अत्यंत मन्द होते हैं
यदि किसी की रूचि होती भी है तो वे तथाकथित
योगियों द्वारा अनेक प्रकार के छलप्रपंचों से पथ
भ्रष्ट कर दिये जाते हैं |
योग के पूर्ण अवस्था के ज्ञान का एकमात्र
उपाय भगवद्गीता के सिद्थान्तों का अनुकरण है|
पूर्ण योग के लिए आठ प्रकार की सिद्धियॉ हैं |
जनार्दन त्रिपाठी 9005030949
सुख-दुख
किसी वस्तु में सुख या दुख नहीं है .दिमाग जिस
वस्तु से जितना सुख-दुख ग्रहण करने में रुचि
लेता है उतना अनुभव करता है |
सोमवार, फ़रवरी 23, 2015
आध्यात्म
रविवार, जनवरी 25, 2015
अनावश्क खर्च बढाकर परेशान न हों यहॉ से जाना भी है भाई
वस्तुओं को खाएं | कोल्ड ड्रिक एवं चाय की
जगह पानी पिएं पानी का बोतल साथ रखें |
फोन पर अनावश्क समय इधर उधर की बातों
में बिताने पर समय व पैसे की वर्वादी होती है |
सामान की उपयोगिता हो तभी खरीदें | आय
प्रतिदिन हो ऐसी व्यवस्था वनायें | आय का
दस प्रतिशत भाग बचाकर लोककल्याण में
खर्च करें | खाना पकाने में प्रेशर कूकर एवम्
सस्ते व आसानी से उपलब्ध ईंधन का प्रयोग
करें | बजट के अनुसार प्लानिंग करें | सीजनल
सब्जियॉ पोषक एवं सस्ती होती हैं |
मित्र समझें | अच्छे लगने वाले शब्दों का प्रयोग
करें | चापलूसी करने से अच्छा चुप रहना है |
अपने सुख दुख का बयान न करें | लड़ाई से
बचें | किसी भी तरह के दिखावे से वचें | मेजबान
की कोई कमी न निकालें | मेजबान की मदद
करें | किसी की बात गम्भीरता से सुनें | वड़े व
धार्मिक लोगों का आदर करें |छोटों को स्नेह दें
और उन्हें घ्यान से सुनें | अपनी बात सलाह के
रूप में रखें |
अर्चन. वन्दन. दास्य. सख्य.और आत्मनिवेदन|
भक्त- आर्त .
स्लाम- समर्पण.
बौध- सत्य* अहिंसा.
मित्रता* क्षमा* परोपकार* उदारता* कृतज्ञता
सत्य* अहिंसा* प्यार* सद्भावना* समर्पण |
कान-शब्द.
नाक-गन्ध.|
पैर-गमन.
वआनंन्दन |
देती है |
है कोई भी इसकी यथार्थ गणना नहीं कर सकता
के लिए सबसे अधिक तथा ४५०० सेनीचे और
६५०० से ऊपर वहुत कम सुग्राही है |
की हर समस्या हल हो सकती है |
में अवतार से तथा कलयुग मे मनुष्य पृथ्वी
को चलाते हैं | सतयुग में मनुष्य की आयु
१००००० वर्ष. द्वापर में १०००० वर्ष. त्रेता
में १००० वर्ष एवम कलयुग में १०० वर्ष
अधिकतम होती है |
सुबह. शाम. दिन.रात.
जाड़ा.गर्मी.वरसात
कलयुग.सतयुग.द्वापर. त्रेता
हाथ झारी के जैसेचलोगे मदारी |
भाई वन्धू कुटुम्ब कबीला सब मतलब के यार|
११-जैसे प्राणी के साथ रहेंगे वैसा ही वनेंगे |
आसक्ति क्षणभंगुर एवं विरक्ति स्वाभाविक है |
होती है जो पतन का कारण है |
१३- विराट परमात्मा को जानकर ही मनुष्य इस
संसार में कार्यकुशलऔर संसार से मुक्त होता
हैं |
यज्ञकर्ममंत्रों. सामवेद में १८७३ गेयमंत्रों. और
अथर्ववेद में ५९७७ जादूटोने मारणमोहन विविध
मंत्रों का संग्रह है |
करना है |
आध्यात्मिक अनुभूति से ब्यक्ति के अंदर
बदलाव आता है |
विष्णुपुराण२३०००
पुराण१८०००.
पुराण९०००.
१४५००.
११०००.
८११००
१७०००
१९०००
४लाख श्लोकों का संग्रह हैं |
किशोरावस्था.जवानी.अधेड़वस्था.बुढ़ापा एवं
मृत्यु शरीर की ये ९ अवस्थायें हैं |
बुधवार, जनवरी 07, 2015
मृत्यु
यदि हम रोज जिन्दगी को अपने आखिरी
दिन की तरह जिएं तो हम खुद को सावित
कर दिखा सकते हैं | मृत्यु को याद रखना
मुझे अपनी जिन्दगी के अहम फैसले लेने
में मददगार होता है | क्योकि तब सारी
अपेक्षाएं. सारा घमंड. असफलता का डर
सब कुछ गायब हो जाता है | बचता वही है
जो वाकई जरूरी है | जिन्दगी का समय
कम होता जा रहा है .इसलिए इसे ब्यर्थ
न कीजिए |अपने अन्दर की आवाज कहीं
डूव न जाय.आप सच में क्या बनना चाहते
हैं यह महत्वपूर्ण है. बाकी सब वेकार |
सफलता हेतु
स्वयं पर विश्वास करें | शरीर को स्वस्थ वनावें
हीनता बोध न करें | संयमी एवं अनुसासित रहें
अपना कार्य ईश्वर का आदेश समझ कर करें
भय को दूर करें | सारी शक्ति अपने अन्दर मह
सूस करें | आत्मशक्ति जगायें |
मंगलवार, अक्टूबर 14, 2014
ब्रह्म-जीव-माया
ब्रह्म जीव एवं माया तीन तत्वों
से पृथ्वी चलती है | जीव एवं
माया (परा एवं अपरा शक्ति)
ब्रह्म की शक्ति हैं | हर जीव
का शरीर उसका साधन है |
पृथ्वी पर ८४ लाख जीव हैं |
मनुष्य रूपी जीव का साधन
ही ऐसा है कि इसके सहारे
ब्रह्म को जाना एवं उसके पास
जाया जा सकता है |
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